जब शरीर ही अपना नहीं तो संसार हमारा कैसे हो सकता है

जब शरीर ही अपना नहीं तो संसार हमारा कैसे हो सकता है


संसारी प्राणी कर्माधीन हो गया है।  संसारी प्राणी शरीराधीन हो गया है। संसारी प्राणी झंद्रियाधीन हो गया है।  संसारी प्राणी विषयाधीन हो गया है। यह जीव शरीराधीन, इंद्रियाधीन, विषयाधीन और कमधिीन होकर संसार कोग्रामणकर रहा है।  अपने स्वरूप को भूल गया है। अपने अधिकार को भूल गया है। अपनी स्वात्मा महासत्ता को समाप्त कर दिया है। हम अपने स्वामि महासत्ता की वजह से ये जो सब देख रहे हैं।  उसी को भूलकर दशहीन हुए हैं। परिवाराधीन हुए हैं। दुख के वक्त हुए। आज यहां पर दिगंबर साधु संयम को धारण करता है, अपनी स्वाधीनता 

को बनाए रखने के लिए संयम को धारण करता है।  अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए संयम को धारण करता है।  अपने दिगंवरत्व को बनाए रखने के लिए संयम को धारण करता है। आज इतना ही कहूंगा, समाधि स्वाधीनता का साधन है, समाधि स्वात्म महासत्ता में समाहित का साधन है।  कर्म निर्जरा आत्म कल्याण का साधन है। जो महापुरुष इस अटल सत्य को समझ जाता है वह समाधि में सफल हो जाता है।  


समाधि क्या है?  समाधि वह है जो ये शरीर है श्रमण संत इसे अपना नौकर मानते है।  वह शरीर के अनुसार नहीं चलता है। वह शरीर के अनुसार अपने अनुसार है।  वह शरीर को एक सधन समझता है। वह शरीर को कभी साध्य नहीं मानता। और यहाँ शरीर संसार में कोई किसी का नहीं है।  यस्यास्ति जब हमारा शरीर ही हमारा नहीं होता तो संसार हमारा कैसा हो सकता है। साधक समाधि धारण करता है। समाधि आत्महत्या नहीं, महामृत्यु महोत्सव है।  


समाधि क्या है?  साधक शरीर के माध्यम जीवन भर साधना करता है, कर्म निर्जरा करता है आत्म कल्याण कर लेता है, धर्म की प्रभावना करता है।  जब यह सब छूटने लगता है, उस समय वह क्षपक वह साधक रोत नहीं, हंसते हुए गते हुए शरीर को छोड़ देती है। यही समाधि है। 

 शरीर कहता है, मैं दूंगा।  साधक कहता है - तू क्यों छोड़ेगा, तेरी छोड़ने से पहले में तुझे छोड़ दूंगा। घुटे हुए शरीर को छोड़ना समाधि है और जबरदस्ती शरीर को छोड़ना आत्महत्या है।  साधक जीवन भर शरीर के साथ रहता है। लेकिन इतना अधिक सवधान रहता है, इसको कबछोड़ना है कौन समय छोड़ना है, कैसे छोड़ना है, यह समाधि है फोनसोप जटाइजर फंप्लेस


का वह शरीर को भी इसलिए छोड़ता है जीवन भर जो रत्नत्रय है।  सदगुण है, संयम है, इन सब की रक्षा के लिए छोड़ते हुए शरीर को अपने रत्नत्रय को संयम को अपने सदगुणों को स्वात्मा को सुरक्षित करना है।  बंधुओं भगवान से यह प्रार्थना करता है मेरे को मोक्ष नहीं चाहिए,

 बस हर गर्व में मुझे संयम प्राप्त हो और हर भव्य में मृत्यु संग्रहालय मनाने का सौभाग्य प्राप्त हो।  जन्मोत्सव नहीं भी मनाता है पर याद रखना, मृत्यु महोत्सव को मनाए बिना जन्मोत्सव मनाना संभव नहीं। जो व्यक्ति मृत्यु महोत्सव मनाता है, 

उन्हीं का जन्म कलक भी मनाया जाता है।  मैंने अपने जीवन काल में संयम का वृक्ष लगाया था, किसी छाया के लिए नहीं, किसी छल के लिए नहीं, हरियाली के लिए नहीं, ख्याति पूजा की खुशबू फूल के लिए नहीं, मैं अपने जीवन में संथम का वृक्ष लगाया है समाधि के फल के लिए।  के लिए। 

 मैं आज सफल हो रहा हूँ, मुझे बहुत खुशी है। ये जीवन में संयम धारण करके प्रतिदिन प्रतिक्षण भावों से एक भव्य एक भव्य मंदिरबनातागया, भविष्य बनाता है। सबको भगवान बनाता है। अब मैंने जीवनभर जो किया, जो सुंदर इमारत बनाई, 

जो भव्य मंदिर बनाया और अब उस पार शिखर बन गया है।  अब बस उस मंदिर के शिखर के ऊपर स्वर्ण कलश रखना ही रह गया है । अब मैं समाधिरूपी स्वर्ण कलश चढ़ा रहा हूं और जीवन में मंदिर की पूर्णता शिखर पर कलश चढ़ाने पर होती है । आज मैं इसमें सफल हूं । मुझे बहुत खुशी है । आजकल मेरी साधना चल रही है । 

मैं प्रयास कर रहा हूं । अब किस से कोई अपेक्षा नहीं । किसी पर कोई आक्षेप नहीं । बिना आक्षेप बिना अपेक्षा के सहज सरल होकर , आगम कोसामने रखकर स्वात्मा व सत्य को सामने रखकर मैं दिन प्रतिदिन समाधि में , स्वात्मा में , सिद्धों में समाहित होताजा रहा हूं । यही मुझे है , मेरे लिए है । 

मुझे कष्ट कुछ भी नहीं लग रहा है । खुशी ही खुशी है । 24 घंटे खुशी मना रहा हूं । मेरेको इतना अच्छा लग रहा है , तीव्र कर्मोदय में खुशी कैसे मनाया जाता है उसे समाधि के समय सीख रहा हूं । मेरा सौभाग्य है । आप सबके लिए आशीर्वाद । । 

शरीर को तुम कितना भी बचाना चाहोगे , वह शरीर बचेगा नहीं । अप सब एक दिन इस शरीर को छोड़कर अपने धर्म , सत्कर्म , सदगुण , स्वात्मा की रक्षाकरके सिद्ध बनो । यही भावना भाता हूं । अहिंसा परमो धर्म की जय । 

Post a Comment

0 Comments