सामाजिक संस्कृति से जुड़ा स्तंम्भ

सामाजिक संस्कृति से जुड़ा स्तंम्भ



यदि कुछ देर भी हम खाली बैठ जाएं , तो भूतकाल की स्मृतियों अथवा भविष्य की कल्पनाओं में खो जाते हैं । वर्तमान को तो भूल ही जाते हैं । हमारे वर्तमान का एक हिस्सा विना कुछ किए बीत जाता है



यह उम्र बहुत कीमती है । इसे खाना खाने , पार्टियों अथवा सिनेमा - यैवी देखकर बर्बाद नहीं कर सकते । यह उम्र लौटती नहीं है । इन सबका कारण भी मन की चंचलता ही है । मन की इच्छाओं को पूरी करने के लिए ही तो हम जीते हैं । अतः इसको समझना भी जरूरी है । इसको एकाग्र रखना भी सफलता के लिए आवश्यक है । इस दधि से आपका यह सृजन ' का आयोजन वधाई के योग्य है । इसके तीनों विषय मन की एकाग्रता पर आधारित हैं । क्या हम किसी खेल को बिना एकाग्रता के खेल सकते हैं या देख भी सकते हैं । क्या बिना एकाग्रता के साहित्य लिखा या पढ़ा जा सकता है ? कला तो गुण ही मन का है । जहां मन है ही नहीं , वहां कैसी कला ? कला ही भक्ति है । मन का परिष्कार करती है । पूरक होती है । साहित्य में रस होता है , जो मन को द्रवित करता है । खेल उत्साह का माध्यम है । एक सकारात्मक क्रिया है , जो विचारों को ऊपर उठाती जाती है । यह एकाग्रता इस लोक और परलोक , दोनों यात्राओं का राजमार्ग है । वर्तमान का श्रेष्ठ उपयोग किया जा सकता है । शरीर को समझने का एक और भी मार्ग है । शरीर का निर्माण , विश्व की तरह ध्वनि तरंगों से होता है । हमारे जीवन में भीतर - बाहर सारा सभेषण इन्हीं तरंगों से होता है । सधि के रंगों का आधार भी ध्वनि तरंगें ही हैं । हमारे चक्रों के भी रंग इन्द्र धनुष के क्रम में होते हैं । मूलाधार से सहसार तक ध्वनि की फ्रीक्वेंसी बढ़ती जाती है । हमारे संगीत की तरंगें भी इन चक्रों की कार्यप्रणाली को प्रभावित करती हैं । प्रकृति के साथ हमारा आदान - प्रदान भी आभामण्डल ( aura ) इन्हीं तरंगों के जरिए करता है । हमारे दर्शन में जप का जो महत्व है , उसको तरंगों की दृष्टि से हम आसानी से समझ सकते हैं । हमारी वर्णमाला के प्रत्येक वर्ण की अपनी फ्रीक्वेंसी है । हर मंत्र का एक निश्चित प्रभाव भी होता है । तब हम समझ सकते हैं कि मंत्रों के जप से हम चक्रों को संतुलित कर सकते है । यह एक भिन्न प्रकार की चिकित्सा पद्धति है । हमारे तीन शरीर होते हैं - स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीर । हमारे मंत्र तीनों शरीरों पर समान रूप से प्रभाव रखते हैं । प्रश्न है तो बस आस्था और एकाग्रता का । इसमें यदि कमी आई तो प्रभाव विपरीत भी हो सकता है ।

एक आसान प्रयोग से आप भी साक्षात कर सकते है कि ध्वनि के स्पन्दन कैसे प्रभावित करते हैं । दो बोतलों में साफ पानी भर कर ढक्कन लगा लें । दोनों को अलग अलग कक्ष में रखें । एक बोतल के सामने नित्य सुबह - शाम प्रार्थना करें , जैसे अपने आराध्य की पूजा में करते हैं । अच्छे वचन बोलें । दूसरी बोतल के समक्ष नित्य अपशब्द - अभद्र भाषा बोलें । आप देखेंगे कि कुछ दिन बाद जिस बोतल के समक्ष प्रार्थना की , अच्छी बातें की उसके पानी का रंग बदल कर पोला - केसरिया सा हो गया । उसमें हल्की खुशबू भी आने लगी । दूसरी तरफ , जिस बोतल के समक्ष अभद्र शब्द बोले उसके पानी का रंग मटमैला - सा गन्दा प्रतीत होने लगा है । उस पानी में बदबू भी महसूस होगी हमारे शरीर को रचना में भी सत्तर प्रतिशत पानी है । ध्वनि के स्पन्दन के प्रभाव से हमारा शरीर कैसे अछूता रह सकता है । प्राणमय कोश , मनोमय कोश और अन्ततः आत्मा भी प्रभावित होता है । नकारात्मक सन्दनों का प्रभाव असाध्य रोगों के रूप में परिलक्षित होता है । यह सारा कार्य सूक्ष्म जगत् का है । इसके भीतर कारण शरीर में स्पन्दन ' मातृदेवो भव ' रूप में कार्य करता है । एक छोटा सा टान्त आपके सामने रखना चाहता हूं



 आप एक आम की गुठली हाथ में लेकर देखें । क्या समें आपको आम का पेड़ दिखाई देता है ? क्या आपको उसमें उस पेड़ की टहनिया , उस पेड़ के पत्ते , फूल या आम दिखाई देते हैं ? नहीं देते । उसके बाद भी हम उस गुठली को जमीन में गाड़ देते है हमारे मन में एक विश्वास होता है कि दो साल बाद पांच साल , दस साल बाद हमें आम मिलेंगे । इसी विश्वास का नाम धर्म है । यही मेरे जीवन का संकल्प है , यही मेरे कर्म का रूप है । मेरे लिए मैं फल पर आश्रित नहीं है , कर्म कर रहा हूं । मुझे मालूम है फल जरूर आएगे । कब आएगे उसकी मुझे चिंता नहीं है । इस बात को हम बहुत अच्छी तरह से इस उदाहरण से समझ सकते हैं । जब आपने उस गुठली को जमीन में गाड़ दिया , खड्डा खोद कर उसके ऊपर मिट्टी डाल दी , ऊपर पानी डाल दिया । उस गुठली को अच्छी तरह दवा दिया कि वो किसी आंधी तूफान में हिलकर बाहर नहीं निकल सकती । थोड़े दिनों बाद आप देखेंगे कि वहां से कोई अंकुर फूट रहा है । छोटे छोटे से कुछ पत्ते कोंपलें बाहर आ रही है । उस वक्त अगर आप उस जमीन को वापस खोदकर देखें तो क्या दिखेगा ? गुठली फटी हुई दिखाई देगी । दो टुकड़े हो चुके होंगे उसके । उसका अस्तित्व समाप्त हो गया होगा । इस नए पौधे के निर्माण से पहले उस गुठली का अस्तित्व समाप्त हो गया ।


जब पौधा और थोड़ा बड़ा हो रहा है । पोरे - धीरे वो पेड़ का स्वरूप ले रहा है तब हम उस पेड़ को देखने लगते है । उसके पत्तों और डालियों को देखने लगते है । तब हम उस गुठली को भूल चुके होते है । किसी को भी वो गुठली याद नहीं रहती , लेकिन अगर अब ये सवाल हमारे मन में आ जाए कि वो पेड़ किसके सहारे है , तब हमारा ध्यान शायद उस गुठली की तरफ वापस जाएगा । कौन टिकाए हुए है उस पेड़ को ? इतना भारी भरकम पेड़ इतनी - सो उसको जड़ें और उस आधी , तूफान में , धूप में कौन हरा रखे हुए है ? पूरे दिन तपता है , दूसरों को छाया भी देता है पर उसको टिकाए , हुए कौन है ? उसके पत्तों को किसने हरा रखा है ? उसके फूलों की मंजरी की खुशबू कहां से आ रही है ? थोड़े दिनों बाद आप देखेंगे कि उसमें आम भी लग रहे हैं । वो आम भी समय के साथ रसीले होते जा रहे हैं , मीठे होते चले जा रहे हैं । रस कहां से आ रहा है । तब आपको फिर उस गुठली की तरफ ध्यान देना चाहिए । वो गुठली उस पूरे काल में उस पेड़ में बह रही थी । वही गुठली बहते हुए उस आम में भी आई है और जितने आम उस पेड़ में लगे है अ सब आमों में उसी गुठली का रस है । उसी गुठली के प्राण हैं । अगर ये बात समझ में आती है तब हमें दोनों चीज दिखाई देगी कि जो मेरा शरीर मां - बाप ने पैदा किया , उसमें मां - बाप पूरे जीवन काल तक प्राण बन कर बहते रहते हैं । प्राण बन कर काम करते रहते हैं और मुझे चलाते रहते । 

भक्ति और प्रेम आत्मा के विषय है । यहां अपेक्षा भाष का पूर्ण अभाव है । लेन देन तो व्यापार में होता है । सम्प्रेषण का एक उदाहरण मैं अपने जीवन में भूल नहीं पाता हूं । ये कृष्ण के जीवन का छोटा - सा उदाहरण है । कृष्ण लेटे है द्वारकापुरी में और रुक्मणी उनके पांच सहला रही है । उनका हाथ धीरे - धीरे कृष्ण को एडी के किसो छाले पर चला गया । तो वो चौक गई । ' कृष्ण , तुम्हारे पांव में छाला । तुमको तो कभी नगे पाव चलने की जरूरत नहीं पड़ी । तुम्हें तो कभी लम्बा पैदल नहीं चलना पड़ा होगा । तुम्हारे पाव में छाला पड़ा कैसे । इसमें जरूर कोई न कोई रहस्य है । आप मुझे समझाओ । " 
कृष्ण ने कोशिश की किसी तरह बात को टालने की । रुक्मणी हठ में आ गई कि आप छुपा रहे हो बात को । इसलिए टाल रहे हो ।
तो उन्होंने कहा - ' रुक्मणी ऐसा नहीं है । सच्चाई ये है कि इसका कारण तुम हो इसलिए मैं बात को आगे बढ़ाना नहीं चाहता । 
' रुक्मणी और क्रोध में आ गई कि एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी । एक मझे बात बता नहीं रहे । ऊपर से कारण भी मुझे ही बता रहे हो । मेरे ऊपर आरोप लगा रहे हो ।
 कृष्ण - ' आरोप नहीं लगा रहा है . यह बात सही है । कारण तुम हो । ' तो वह बोली - तो आप को समझाना पड़ेगा ।
 कृष्ण बोले - अभी कुछ दिन पहले राधा आई थी द्वारका में ।
 रुक्मणी - हाँ आई थी । 
कृष्ण - तुम्हारी ड्यूटी लगाई थी कि तुम उसकी सेवा करो ।
 रुक्मणी - हा , लगाई थी और मैंने ईमानदारी से सेवा भी की । कोई कसर नहीं छोड़ी ।
 कृष्ण - तुम्हारी बात सही है । पर एक सचाई है कि तुम्हारे मन में राधा के प्रति अभी वो चुप हो गई । 
कृष्ण ने कहा - ' तुमने उसी ईष्या के कारण उसको गरम - गरम दूध पिला दिया था एक दिन । तुम्हें मालूम नहीं है कि हृदय में मेरे चरण रहते हैं । '

 सामजिक संस्कारों से जूडी यह स्तंभ नई पीढ़ी को भी पढ़ाएं

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